पूर्वाचल में
बांसवाड़ा परियोजना

वर्ष 2002 में अखिल भारतीय बैठक में पूर्वाचल के कार्यकर्ताओं के माध्यम से जानकारी में आया कि मिजोरम में रहने वाले MANIPUR रियांग (आदिवासी) समाज के लगभग 70000 लोगों को चर्च (ईसाई) द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं के कारण मिजोरम छोड़ना पड़ा, और उनको त्रिपुरा और आसाम राज्यों में विस्थापित कैम्पों में अपने परिवार के साथ रहना पड़ रहा है, इनके बच्चों की पढाई छूट गई है। इस बातचीत में से सत्र 2003-04 में नॉर्थ त्रिपुरा के विस्थापित केम्पों में रह रहे रियांग जनजाति के 14 बालक/बालिकायें पढ़ाई करने के लिये बांसवाडा आये। इसके बाद से प्रति वर्ष विस्थापित केम्पों में रहने वाले रियांग जनजाति समाज के बच्चों के अतिरिक्त पूर्वाचल से अन्य जनजाति समाज (रियांग, चकमा, त्रिपुरी, देववर्मन) के बच्चों का भी पढ़ाई करने के लिये बासंवाडा परियोजना में आने का क्रम जारी है।

  • प्राथमिक विद्यालय विस्थापित कॅम्प शांतिपाड़ा नॉर्थ त्रिपुरा
  • प्राथमिक विद्यालय विस्थापित कॅम्प आसापाड़ा नॉर्थ त्रिपुरा
  • आवासीय विद्यालय करमसरा, जिला धलाई त्रिपुरा
  • आवासीय विद्यालय करमसरा, जिला धलाई का छत्रावास

वर्ष 2006 में कुछ रियांग बच्चे 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद बांसवाडा से अपने घर वापस जाने लगे, उन बालको से जब पूछा गया कि वापस जाकर घर पर तुम क्या करने वाले हो. बालको ने कहा कि हम तो वहां पर विस्थापित केम्प में रहते हैं और वहां हमारे पास रोजगार के नाम पर करने के लिए कुछ भी नही है। तब उन बालकों से कहा कि तुम लोगो ने यहां बांसवाडा में अपनी पढ़ाई करने के साथ ही गांवों में चलने वाले छोटे विद्यालयों को नज़दीक से देखा है, तुम लोग भी ऐसे ही विद्यालय वहां जाकर शुरू करो, और बच्चों को पढ़ाओं, और वर्ष 2006-07 में नॉर्थ त्रिपुरा में चल रहे विस्थापित केम्प आशापाडा, शांतिपाडा और नरसिंहपाडा में बालकों ने विद्यालय प्रारम्भ किये और इस प्रकार संयोगवश ही बांसवाडा परियोजना का कार्य पूर्वाचल में शुरू हो गया ।

त्रिपुरा और मिजोरम में आंतकवाद से ग्रस्त गांवों में कार्य के लिये जाना और रात्री विश्राम करना कितना कठिन कार्य था, कि सन् 1998 में नॉर्थ त्रिपुरा के कंचनपुर ब्लाक के कंचनसरा (82 माइल्स) गांव से संघ के 4 वरिष्ठ कार्यकर्ताओ का आंतकवादियों द्वारा अपहरण कर हत्या कर दी गई थी। इन्हीं परिस्थितियों में संयोगवश बांसवाडा परियोजना के माध्यम से त्रिपुरा के विस्थापित केम्पों में विद्यालय प्रारम्भ हो गये। कार्यकर्ताओं की सम्भाल एवं विद्यालयों की व्यवस्था आदि के लिये बांसवाड़ा परियोजना के प्रमुख कार्यकर्ता जब भी पूर्वाचल के प्रवास पर जाते थे तो वह विस्थापित केम्पों में और गांव में रहने वाले कार्यकताओं के घर पर ही रुकते थे। स्थानीय लोगों के साथ लगातार रहकर क्षेत्र के लोगों को और क्षैत्र की समस्याओं को समझा । कार्य विस्तार की योजना में त्रिपुरा के कंचनसरा (82 माइल्स) गांव के पास ही सतनाला गांव में भवन निर्माण कर छात्रावास प्रारम्भ किया गया । स्थानीय जनजाति समाज (रियांग, देववर्धन, त्रिपुरी और चकमा) के युवकों को अपने गांव में छोटे विद्यालय (2 ण्टे का संस्कार केन्द्र) प्रारम्भ करने के लिये कहा। कार्यकर्ताओं की 6 साल की मेहनत से चौकाने वाली सफलता मिली, और वर्ष 2012 तक त्रिपुरा के 5 जिलो (नॉय त्रिपुरा, ऊनकोटि, धलाई गोमती एवं दक्षिण त्रिपुरा) में मिजोरम के 3 जिलों (मोमित, लोंगले एवं कोलाशिव) में आ नाम के 2 जिलो (कछार एवं हाइलाकांदि) में और मेघालय के 1 जिले (पूर्व जयंतिया हिल्स) में विद्यालयों एवं संस्कार केन्द्रो (2 घंटे का विद्यालय) की संख्या 407, टीचर्स की संख्या 635 और छात्र/छात्राओं की संख्या लगभग 12000 हो गई। इन विद्यालयों की सम्भाल व व्यवस्था के लिये प्रवासी कार्यकर्ताओं की संख्या 37 हो गई। दिसम्बर 2011 में प्रवासी कार्यकताओं एवं टीचर्स का 3 दिवसीय पहला प्रशिक्षण शिविर सेवाधाम अगरतला (त्रिपुरा) म आयोजित किया गया था, जिसमें 365 संख्या थी। जनवरी 2012 में सेवाधाम अगरतला (त्रिपुरा में प.पू. सरसंघ चालक मोहन जी भागवत का कार्यक्रम हुआ था, इस कार्यक्रम में बांसवाडा परियोजना द्वारा संचालित विद्यालयों के 69 जनजाति समाज (रियांग, चकमा) के कार्यकर्ताओं ने गणवेश के साथ कार्यक्रम में भाग लिया था जो कि इस क्षेत्र के लिये उत्साह जनक अनुभव था।

आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर कार्य (विद्यालय) ही स्थायी होता है, बांसवाडा परियोजना के इसी नीतिगत निर्णय के अनुसार विद्यालय में पढ़ाने वाले आचायों (टीचर्स) को अपना मानधन विद्यालय में पढ़ने वाले बालकों के अभिभावकों से सहयोग (फीस) लेकर पूरा करने के लिये कहा गया लेकिन विद्यालय में पढ़ाने वाले अधिकतम टीचर्स बालकों के अभिभावकों से सहयोग (फीस) नही ले पाये फलस्वरूप टीचर्स को मानधन नही मिल पाने के कारण धीरे धीरे विद्यालयों की संख्या में कमी आती गई। जून 2016 तक क्षेत्र में एक आवासीय विद्यालय एवं 97 विद्यालय / संस्कार केन्द्र है। 33 प्रवासी कार्यकर्ता क्षेत्र में सक्रियता से कार्य कर रहे है। जून 2016 में कार्य की समीक्षा कर निर्णय किया है कि आर्थिक कारणों से जो विद्यालय / संस्कार केन्द्र बन्द हो गये है, उनको पुनः शुरू किया जाये। इसके साथ यह भी निर्णय किया गया कि गांव में एक मंदिर हो, और उसमें साप्ताहिक भजन कीर्तन के का लक्ष्य तय किया है, प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई है।

समाज पर प्रभाव

पूर्वाचल के अन्य भागों की तरह त्रिपुरा, मिजोरम भी आतंकवाद से ग्रस्त था। इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करना कठिन था, बांसवाड़ा परियोजना द्वारा संचालित विद्यालयों एवं संस्कार केन्द्रों से ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले जनजाति समाज के नवयुवक प्रभावित होने लगे, फलस्वरूप आंतकवादी गतिविधियों में लिप्त नवयुवक बडी संख्या में अपने विद्यालयों के अध्यापक (टीचर्स) बने है। बांसवाडा परियोजना द्वारा संचालित विद्यालयों के प्रति ग्रामीण क्षेत्र अपनत्व का भाव जाग्रत हो रहा है और वह अपने गांव में विद्यालय प्रारम्भ करने के लिये कहते और इसके लिये वह निःशुल्क जमीन देने के लिये तैयार रहते हैं। संस्कृति दीक्षा के 3 कार्यक्रमों 82 गांवों के 153 परिवारों के 748 जनजाति समाज के बंधुओं की घर वापसी हुई है।